Digital Corpus for Graeco-Arabic Studies

Galen: In Hippocratis Epidemiarum librum I (On Hippocrates' Epidemics I)

Μικρὰ πνεύματα βόρεια.

Μικρά φηϲι πνεύματα γενέϲθαι τοῦ χειμῶνοϲ. εἰ δέ γε κατὰ τὴν ἑαυτοῦ φύϲιν ὁ χειμὼν ἐπεραίνετο, πάντωϲ ἂν ἐγένετο μεγάλα. καὶ κατὰ διττὸν τρόπον ὑπῆρξεν ἂν αὐτοῖϲ τοῦτο, καθάπερ γε νῦν ἔοικε γεγονέναι ϲμικρά, κατά τε τὸ ἴδιον μέγεθοϲ αὐτῶν καὶ κατὰ τὸ μῆκοϲ τοῦ χρόνου. καὶ γὰρ ὀλίγαιϲ ἡμέραιϲ ἐγένετο βόρεια καὶ οὐκ ἰϲχυρά, τοῦ χειμῶνοϲ εἰθιϲμένου μέγαν ἴϲχειν βορρᾶν ἐν χρόνῳ πολλῷ.

Αὐχμοί.

Τὴν ξηροτέραν τοῦ προϲήκοντοϲ κατάϲταϲιν αὐχμὸν ὠνόμαϲεν οὐ πάνυ τι ϲυνήθωϲ. εἰώθαμεν γὰρ οὐ τὴν ἁπλῶϲ ξηροτέραν, ἀλλὰ τὴν ἄκρωϲ ξηρὰν ὀνομάζειν οὕτωϲ. ἀμήχανον δέ ἐϲτι καὶ ἄπιϲτον εἰϲ τοϲοῦτον γενέϲθαι τὸν χειμῶνα ξηρόν, ὡϲ αὐχμηρὰν ἀπεργάζεϲθαι τὴν γῆν, ὥϲπερ ἐν θέρει. οὐδὲ γὰρ οὐδ’ ἐν ἦρι τοιαύτη γίνεται κατάϲταϲιϲ, ᾗ νῦν ὅμοιον γεγονέναι φηϲὶ τὸν χειμῶνα.

Τὸ ϲύνολον ἔϲ γε χειμῶνα οἷον ἔαρ γίνεται.

Ξηρότερον μέντοι γ’ ἑαυτοῦ φηϲι γεγονέναι τὸν χειμῶνα, οὐ μὴν ὡϲαύτωϲ τῷ θέρει ξηρόν, ὥϲ γε καὶ τὸν αὐχμόν, ὃν ὀλίγον ἔμπροϲθεν ἔφαμεν οὐ πάνυ τι κυρίωϲ εἰρῆϲθαι. λεκτέον οὖν ἐϲτιν οὐχ ἁπλῶϲ ὑπ’ αὐτοῦ τοῦτ’ εἰρῆϲθαι νῦν, ἀλλ’ ἐν τῷ πρόϲ τι, καθάπερ μύρμηκα μέγαν ἢ ὄροϲ μικρόν. ὥϲτε ὁ χειμὼν ἐγένετο νῦν οὐχ ἁπλῶϲ αὐχμη- ρόϲ, ὥϲπερ οὐδὲ μέγαϲ μύρμηξ ἁπλῶϲ μέγαϲ, ἀλλ’ ὡϲ μέγαϲ μύρμηξ, οὗτόϲ τε οὖν τοῦ ὄρουϲ τοῦ ϲμικροῦ ϲμικρότερόϲ ἐϲτιν ὅ τε χειμὼν ὁ αὐχμηρὸϲ ὑγρότεροϲ τοῦ θέρουϲ, ὥϲπερ καὶ τὸν νῦν γεγενημένον χειμῶνα παραβάλλων εἶπε· τὸ ϲύνολον ἔϲ γε χειμῶνα οἷον ἔαρ γίνεται.

قال أبقراط: وكانت الرياح الشماليّة فيه قليلة.

قال جالينوس: إنّ أبقراط قال: «إنّ الرياح الشماليّة» كانت في ذلك الشتاء «قليلة». ولو كان ذلك الشتاء جرى أمره على طبيعة الشتاء، لكانت الرياح الشماليّة ستكون فيه عظيمة. وكان يكون عظمها وكثرتها على ضربين، أعني في قوّتها وفي دوامها، وسببه أن تكون قلّتها كانت في ذلك الشتاء على الضربين جميعاً، أعني في عظم الرياح أنفسها وقوّتها وفي مدّة زمان هبوبها، أعني أنّها هبّت فيه أيّاماً يسيرة ولم يكن في وقت ما هبّت بالغزير، وقد يعلم أنّ الشمال تهبّ في الشتاء وهي عظيمة قوّةً وتدوم مدّة طويلة.

قال أبقراط: وكان يابساً عديماً للمطر.

قال جالينوس: إنّ أبقراط إنّما يعني بقوله في ذلك الشتاء «إنّه كان يابساً عديماً للمطر» أنّه كان أجفّ وأقلّ مطراً من المقدار الذي يستحقّه الشتاء. وقد خالف في ذلك ما جرت عليه العادة في الكلام بعض الخلاف، لأنّ العادة جرت متى قلنا في وقت من الأوقات «إنّه كان يابساً عديماً للمطر» أن يفهم عنّا من قولنا ذلك أنّه كان في غالب اليبس حتّى لم يكن فيه مطر بتّة، إلّا أنّه ممّا لا يمكن ولا يصدّق به أن يبلغ من يبس الشتاء ألّا يكون فيه مطر بتّة. فإنّ الربيع فضلاً عن الشتاء لا تكون حال الهواء فيه هذه الحال، وقد قال أبقراط في ذلك الشتاء إنّه كان شبيهاً بالربيع.

قال أبقراط: وكان الشتاء كلّه بمنزلة ما يكون الربيع.

قال جالينوس: إنّ أبقراط يقول إنّ ذلك الشتاء كان أجفّ من الشتاء الذي هو على طبيعته، إلّا أنّه لم يكن شبه الصيف. فقد يدلّك هذا على صحّة ما قلنا قبل من أنّه لم يعن بقوله «إنّه كان يابساً عديماً للمطر» حقيقة ما يفهم من هذا اللفظ. فينبغي أن نقول إنّ قوله ذلك ليس هو مطلقاً لكنّ بالإضافة، كما قد نقول «نملة كبيرة» «وجبل صغير»، من قبل أنّ ذلك الشتاء إنّما «كان يابساً عديماً للمطر» بقياس الشتاء المألوف، لا أنّه كان يابساً مطلقاً عديماً للمطر، كما ليس نقول «نملة كبيرة» ⟨مطلقاً، لكنّ⟩ بقياس النملة المألوفة. فالنملة الكبيرة، إذا قيست إلى الجبل الصغير، كانت أصغر منه، والشتاء اليابس، إذا قيس إلى الصيف، كان أرطب منه، وكذلك الربيع الباقي على طبيعته. فلمّا قاس ذلك الشتاء إلى حال الشتاء الطبيعيّ، قال «إنّه كلّه كان بمنزلة ما يكون الربيع».‌‌