Digital Corpus for Graeco-Arabic Studies

Galen: In Hippocratis Epidemiarum librum I (On Hippocrates' Epidemics I)

ὠφελεῖν τοὺϲ ἱδρῶταϲ οὔτ’ ἀγαθὸν εἶναι ϲημεῖον· ἢ γὰρ πλεονεξίαν ὑγρῶν ἢ ἀρρωϲτίαν δυνάμεωϲ ἐνδείκνυνται.

Ψῦξιϲ πολλὴ τῶν ἀκρέων καὶ μόλιϲ ἀναθερμαινόμενα.

Καὶ διὰ φλεγμονὴν μὲν ἀξιόλογον ϲπλάγχνων ἐν τοῖϲ παροξυ- ϲμοῖϲ δυϲεκθέρμαντα γίνονται τὰ ἄκρα καὶ διὰ πλῆθοϲ δὲ ψυχρῶν χυμῶν, ὡϲ ἀπεδείξαμεν ὑπὲρ ἀμφοτέρων ἐν ταῖϲ προειρημέναιϲ πραγ- ματείαιϲ.

Οὐδὲ ἄγρυπνοι τὸ ϲύνολον, μά- λιϲτα δ’ οὗτοι καὶ πάλιν κωματώδεεϲ.

[καὶ πάλιν] Ἀγρύπνουϲ μὲν αὐτούϲ φηϲι γεγονέναι μᾶλλον ἐν μέρει, οὐ μὴν τὸ ϲύνολόν γε ἦν τούτοιϲ οὐδ’ ἡ ἐναντίωϲιϲ ϲφοδρά. φηϲὶ γὰρ αὐτοῖϲ ἐν μέρει καὶ τὸ κωματῶδεϲ ϲύμπτωμα γεγονέναι. τοῦτο δ’ ἐϲτίν, ὅταν καταφέρωνται μὴ δυνάμενοι τὰ τῶν ἐγρηγορό- των πράττειν, ὡϲ ἀπεδείξαμεν.

Κοιλίαι δὲ πᾶϲι ταραχώδεεϲ καὶ κακαί, πολὺ δὲ τούτοιϲι κάκιϲται.

Τῆϲ περιουϲίαϲ τῶν χυμῶν εἰϲ τὴν γαϲτέρα ῥεούϲηϲ, ὡϲ ἔμπρο- ϲθεν εἶπον, εἰκὸϲ ἦν ταραχώδειϲ γενέϲθαι κοιλίαϲ. τούτοιϲ οὖν τοῖϲ τριταιοφυέϲιν, ὑπὲρ ὧν ποιεῖται τὸν λόγον, ὡϲ ἂν οὖϲι κα- κοηθεϲτέροιϲ τῶν ἄλλων νοϲημάτων, ἀναγκαῖον ἦν τοὺϲ κάμνονταϲ καὶ κατὰ τὴν γαϲτέρα χείρουϲ γενέϲθαι.

Οὖρα δὲ τοῖϲι πλείϲτοιϲι τού- των ἢ λεπτὰ καὶ ὠμὰ καὶ ἄχρω καὶ μετὰ χρόνον ϲμικρὰ πεπαινόμενα κριϲίμωϲ ἢ πάχοϲ μὲν ἔχοντα, θολερὰ δὲ καὶ οὐδὲν καθιϲτάμενα, οὐδὲ ὑφιϲτάμενα, ἢ ϲμικρὰ καὶ

‌ينتفع فيه بالعرق، ولا هو فيه علامة محمودة، لأنّه إنّما يدلّ إمّا على كثرة الرطوبات وإمّا على ضعف القوّة.

قال أبقراط: وكان يعرض لهؤلاء برد شديد في الأطراف حتّى كانت لا تسخن إلّا بكدّ.

قال جالينوس: إنّ «الأطراف» تبرد في نوائب الحمّى البرد الذي يعسر سخونتها معه، إمّا من قبل ورم عظيم يكون في الأحشاء وإمّا من قبل كثرة أخلاط باردة، كما قد بيّنّا من أمر هاتين الحالتين في الكتب التي ذكرناها قبل.

قال أبقراط: ولم يكونوا يسهرون السهر الفادح، وخاصّة هؤلاء، ثمّ كان يعرض لهم أيضاً سبات.

قال جالينوس: يعني أنّه كان يعرض لهم «السهر» والأرق أكثر، إلّا أنّه لم يكن ما يعرض لهم من ذلك أمراً «فادحاً» مبرّحاً، يعني أنّه لم يكن الأرق يعرض في جميع الأوقات، ولا كان يعرض لهم منه شيء شديد مفرط.

وكان بعضهم «يعرض له» في بعض الأوقات «السبات»، ومعنى «السبات» أنّهم كانوا يفترون حتّى لا يقدروا أن يفعلوا ما يفعله المنتبهون، كما قد بيّنّا ذلك.

قال أبقراط: وكانت بطون جميعهم مستطلقة، إلّا أنّ حال هؤلاء في ذلك كانت أردأ كثيراً.

قال جالينوس: قد قلنا قبل إنّه كان ينصبّ من تلك الأخلاط التي في الأبدان في تلك الحال فضل إلى المعدة والأمعاء، ويجب إذا كان ذلك أن «يستطلق البطن». ولمّا كان مرض أصحاب هذه الحمّى الشبيهة بالغبّ أخبث أمراض من مرض في ذلك الوقت، وجب ضرورة أن تكون حالهم في استطلاق البطن أيضاً أردأ.

قال أبقراط: وكان البول في أكثر هؤلاء إمّا رقيقاً نيّاً غير ملوّن، ولا يظهر فيه من النضج الذي يكون به البحران إلّا شيء يسير بعد مدّة طويلة، وإمّا أن كان يكون فيه غلظ، إلّا أنّه كان يكون منثوراً لا يتميّز فيه شيء ولا يرسب أو، إن رسب فيه شيء، كان ذلك الشيء الذي يرسب يسيراً‌